Sunday, July 22, 2018

It's me!


An old school girl, a tennis bug, an accidental writer and a bookish nerd, I have finally embarked on a journey towards donning the journalist hat for a lifetime.

As a budding journalist of Zee Institute of Media And Arts (ZIMA), I'll be sharing here my many classroom pursuits and other 'journalistic' activities.

So hop in with me and let's ride this crazy bus together!

मजबूर


Following is the character sketch of a person I observed below my institute building.
Language: Hindi

                              मजबूर
घनी आबादी वाले इस मायानगरी में कितने ही चेहरे है।   उन चेहरे के पीछे बस्ती है कुछ अनगिनत कहानियां। वह कहानानिया जिसे आप और हम नहीं समझ पाएंगे। ३० वर्षीय प्रकाश शर्मा बेचैनी के साथ अपने मोटरसाइकल पर बैठे है। आखों में परेशानी के साथ उनकी निगाहें लगातार अपने फोन पर टिकी हुई है। दो दो मिनटों में वह उसी बेचैनी के साथ किसी से फोन पर बात कर रहे है। एक सप्ताह पूर्व प्रकाश की माताजी ट्रेन दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो गई थी। डॉक्टरों ने तो अपना जवाब दे दिया था। लेकिन माताजी की दृढ़ निष्ठा ही होगी की उन्होंने यमराज को भी मात दे दी। जान गवाने का खतरा अभी भी सर पर मंडरा रहा था। और रास्ता सिर्फ एक, ऑपरेशन।
                प्राइवेट कंपनी में एक छोटे औधे पर काम करने वाले प्रकाश की आय इतनी नहीं थी कि वह ऑपरेशन का खर्चा उठा सके। दस वर्ष ईमानदारी और सच्चाई से काम करने के बाद यह दूसरा मौका था जब प्रकाश ने अपने आप को असह्य और मजबूर पाया। बैंक से गुहार लगाई, दोस्तो से मदद मांगी, रिश्तेदारों का दरवाज़ा खटखटाया। इतनी कठिनायों के उपरांत भी दो लाख में से सिर्फ १ लाख ५० हज़ार ही जमा हो पाई। बचपन से ही खुद्दार रहे प्रकाश ने एक सप्ताह में ही अपनी खुद्दारी का गला घोटा दिया।
            आंखो में सपने और दिल में कुछ कर गुजरने का जज्बा लिए पहली बार २००७ मे प्रकाश ने इस मयानागरी मे अपने कदम रखे थे। गांव की शुद्ध हवा में पले बढ़े २० वर्षीय प्रकाश इस शहर की धूल में अपने आप को खोने लगा। यही वह पहला अवसर था जहां उसने स्वयं को मजबूर और असह्या पाया। अपनी मां की आंचल की छाया से निकलकर अब वह आसमान छूती इमारतों के नीचे धसने लगा। लेकिन कुछ कर गुजरने की चाहत कभी काम नहीं हुई। छोटे छोटे कामों से शुरुआत कर धीरे धीरे अपना मुकाम बनाया। और आखिरकार एक कुरियर कंपनी में छोटे बाबू के औधे पर टिक गए। शायद ही उसने तब सोचा होगा कि उसकी ज़िन्दगी में और तूफान आने अभी बाकी है। और उसके पहले कोई ख़ामोशी भी नहीं होगी।
              १० साल की उम्र में  जब छत से गिरने के बाद प्रकाश कि पैर और हाथ की हड्डियां टूट गई थी तब मां ने ही दिन रात उसकी सेवा की थी। अपनी नींद उड़ाकर, उसके जख्मों पर मरहम लगाया और उसे फिर से अपने पैरों पर खड़ा होने का हौसला दिया। उसी मां को ना बचा पाने की इस एहसास ने उसे अन्दर से चूर चूर कर दिया था। किन्तु वह ऐसे हार मानने वाला नहीं था। कई मशक्कत करने के बाद प्रकाश ने आखिरकार डेढ़ लाख रुपए जमा कर लिए थे।
              प्रकाश शर्मा अपनी मोटरसाइकल पर बड़ी ही व्याकुलता से बैठा है। उसे आज ऑपरेशन में लगने वाला बाकी के ५० हज़ार मिलने वाले थे। जिसके लिए उसने नशीले पढ़ारतो का लेन देन किया था वो बाकी के री पैसे लेकर आने वाला है। और ठीक उसके सामने दह रही थी उसकी ईमानदारी और सच्चाई को दीवार।